अयोध्या

अयोध्या


🔴अयोध्या का उत्खनन  🔴

♨️ अयोध्या विषय सूची 

👉अयोध्या    
👉प्राचीन उल्लेख    
👉बौद्ध साहित्य में अयोध्या    
👉अयोध्या का उत्खनन    
👉महाकाव्य में अयोध्या    
👉मध्यकाल में अयोध्या    
👉सरयू नदी 

♨️अयोध्या का उत्खनन विवरण

अयोध्या का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ। राज्य उत्तर प्रदेश ज़िला फ़ैज़ाबाद पुन: उत्खनन श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में यह उत्खनन कार्य 1979-1980 में पुन: प्रारम्भ हुआ। अन्य जानकारी इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।[1] उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-

 प्रथम काल

♨️टीका टिप्पणी और संदर्भ 

👉↑ इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41 
👉↑ इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52 
👉↑ यह जैन मृण्मूर्ति चौथी शताब्दी ई. पू. की है जो प्राचीनता की दृष्टि से भारत वर्ष में जैन मूर्तियों में प्रथम रचना है। 
👉↑ इ. आ. रि., 1976-77, पृष्ठ 53 
👉↑ इ. आ. रि., 1979-80, पृष्ठ 76-77 
👉↑ हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति। 
👉↑ के. एन. दीक्षित, रामायण, महाभारत एंड आर्कियोलाजी, पुरातत्त्व, अंक-33, 2002-2003, पृष्ठ 114-118. 
👉↑ कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 ± {\displaystyle \pm } 30 वर्ष


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भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

अयोध्या विषय सूची

अयोध्या (अंग्रेज़ीAyodhyaउत्तर प्रदेशराज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद ज़िले में आता है। रामायण के अनुसार दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी हिन्दूबौद्धइस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेषदेखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

इतिहास

अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते भारत के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारतकी प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।[1] अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-

गंगा बड़ी गोदावरी,
तीरथ बड़ो प्रयाग,
सबसे बड़ी अयोध्यानगरी,
जहँ राम लियो अवतार

अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने[2] अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण[3] से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्र जी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। रघु वंश[4] से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। महाभारत में अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था।[5]घटजातक में अयोध्या[6] के कालसेननामक राजा का उल्लेख है।[7] गौतमबुद्धके समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्तीदक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है[8] जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।

  • पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है।[10]
  • सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।[11]
  • राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था।[12]
  • बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववर्ती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो कन्नौजसे 13 योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।[13]
  • मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव ज़िले में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है।[14]
  • नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है।[15] थेरगाथा अट्ठकथा[16] में साकेत को सरयू नदी के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली | पृष्ठ संख्या= 39| विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
  1.  अयोध्या मथुरा माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:
  2.  बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार
  3.  वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4
  4.  रघु वंश सर्ग 16
  5.  अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2
  6.  अयोज्झा
  7.  जातक संख्या 454
  8.  देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  9.  एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड द इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली, अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81
  10.  ऐतरेय ब्राह्मण, 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, 1971, पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी
  11.  'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11
  12.  नंदूलाल डे, द जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14
  13.  जेम्स लेग्गे, द ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54
  14.  जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086
  15.  नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1956) पृष्ठ 7 एवं 12
  16.  थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103
  17.  द्वितीय शती ई. पू.
  18.  'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29
  19.  रघु वंश 5,31; 13,62
  20.  कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5
  21.  'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
  22.  विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
  23.  आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
  24.  यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
  25.  द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
  26.  ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
  27.  अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।
  28.  उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
  29.  मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  30.  मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  31.  संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  32.  तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  33.  अध्याय 5, श्लोक 31
  34.  आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963 ई.) पृष्ठ 55
  35.  ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी1976), पृष्ठ 405
  36.  नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174
  37.  फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110
  38.  बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124
  39.  विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., 1900पृष्ठ 75
  40.  डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे
  41.  भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254
  42.  आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24
  43.  राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  44.  हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91
  45.  विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58
  46.  ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15
  47.  ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.
  48.  हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.
  49.  हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7
  50.  मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्त्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102
  51.  तैत्तिरीय आरण्यक 1/27 अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत: यो वयताम् ब्रह्ममनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।
  52.  ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  53.  अथर्वेवेद, 10/2/28-33
  54.  श्रीमद्भागवदगीता, 5/13
  55.  पूर्वउल्लेखित, 1/27
  56.  पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  57.  पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102
  58.  जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55
  59.  थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355
  60.  बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।
  61.  असङ्ग़ बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।
  62.  प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।
  63.  थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357
  64.  इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41
  65.  इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52
  66.  हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।
  67.  कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 30 वर्ष

चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण

फ़ाह्यान

चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को 'शा-चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।[58]

ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।[59] यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु[60] ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।

ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़[61]बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।

आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित[62]स्वर्ग से उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलते थे।[63]

अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ।[64] उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-

प्रथम काल

दिगम्बर जैन मंदिर, अयोध्या

उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं।

द्वितीय काल

इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं।

तृतीय काल

इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। ।

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया।[65] इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।

हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन

हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।

लक्ष्मण क़िला, अयोध्या

महत्त्वपूर्ण उपलब्धि

इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था।

ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन

आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।

सीमित क्षेत्र में उत्खनन

1981-1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था।

बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में

अयोध्या का एक दृश्य

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 2002-2003ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।[66]

नमूना सख्यानमूनों की तिथि [67]पुर्नगणना वर्ष में
संख्या-7, अयोध्या-1, 2152 जी-7 (16) 9.15 मीटर2830 100 बी. पी. (880 ई. पू.)1190- 840 ई. पू.
संख्या-8, अयोध्या-1, 2153 जी-7 (19) 11.00 मीटर2860 100 बी. पी. (910 ई. पू.)1210- 900 ई. पू.
संख्या-9, अयोध्या-1, 2154 जी-7 (20) 11.53 मीटर3200 130 बी. पी. (1250 ई. पू.)1680- 1320 ई. पू.

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली | पृष्ठ संख्या= 39| विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
  1.  अयोध्या मथुरा माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:
  2.  बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार
  3.  वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4
  4.  रघु वंश सर्ग 16
  5.  अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2
  6.  अयोज्झा
  7.  जातक संख्या 454
  8.  देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  9.  एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड द इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली, अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81
  10.  ऐतरेय ब्राह्मण, 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, 1971, पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी
  11.  'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11
  12.  नंदूलाल डे, द जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14
  13.  जेम्स लेग्गे, द ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54
  14.  जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086
  15.  नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास (प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1956) पृष्ठ 7 एवं 12
  16.  थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103
  17.  द्वितीय शती ई. पू.
  18.  'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29
  19.  रघु वंश 5,31; 13,62
  20.  कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5
  21.  'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
  22.  विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
  23.  आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
  24.  यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
  25.  द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
  26.  ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
  27.  अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।
  28.  उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
  29.  मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  30.  मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  31.  संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  32.  तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  33.  अध्याय 5, श्लोक 31
  34.  आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963 ई.) पृष्ठ 55
  35.  ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी1976), पृष्ठ 405
  36.  नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174
  37.  फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110
  38.  बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124
  39.  विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., 1900पृष्ठ 75
  40.  डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे
  41.  भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254
  42.  आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24
  43.  राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39
  44.  हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91
  45.  विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58
  46.  ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड, लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15
  47.  ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.
  48.  हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.
  49.  हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7
  50.  मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्त्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102
  51.  तैत्तिरीय आरण्यक 1/27 अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत: यो वयताम् ब्रह्ममनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।
  52.  ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  53.  अथर्वेवेद, 10/2/28-33
  54.  श्रीमद्भागवदगीता, 5/13
  55.  पूर्वउल्लेखित, 1/27
  56.  पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47
  57.  पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102
  58.  जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55
  59.  थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355
  60.  बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।
  61.  असङ्ग़ बोधिसत्व का छोटा भाई बसबंधु बोधिसत्व था।
  62.  प्राचीन काल में बौद्धों की यह इच्छा रहती कि वे लोग मृत्यु के पश्चात् तुषित स्वर्ग में मैत्रेय के निकट निवास करें।
  63.  थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357
  64.  इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41
  65.  इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52
  66.  हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।
  67.  कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570 30 वर्ष

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अयोध्या के प्राचीन उल्लेख  

अयोध्या के प्राचीन उल्लेख विवरण अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था। राज्य उत्तर प्रदेश ज़िला फ़ैज़ाबाद अन्य जानकारी अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र (द्वितीय शती ई. पू.) का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है।[1] कालिदास ने उत्तरकोसल की राजधानी साकेत[2] और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था। महाकाव्यों में अयोध्या मुख्य लेख : महाकाव्य में अयोध्या अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।[3] अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।[4] अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था।[5] जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।[6] एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र[7] ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है।[8] अयोध्या का एक दृश्य टीका टिप्पणी और संदर्भ ↑ 'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29 ↑ रघु वंश 5,31; 13,62 ↑ कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5 ↑ 'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12 ↑ विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34 ↑ आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7 ↑ यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था। ↑ द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। ↑ मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124 ↑ मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165

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बौद्ध साहित्य में अयोध्या - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

अयोध्या विषय सूची

बौद्ध साहित्य में अयोध्या का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके 'मज्झिमनिकाय' में उन्हें 'कोसलक' (कोशल का निवासी) कहा गया है।[1] प्राचीन भारतीय साहित्य संसार में बौध ग्रंथो में साकेत के रूप में अयोध्याका महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है। बुद्ध के समय के छः प्रमुख नगरो में साकेत की गिनती होती थी। विख्यात बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र एवम अनिरुद्ध के अयोध्या में ठहरने की बात प्रमाण सहित मिलती है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद जिन चार शक्तिशाली प्रशासनिक इकइयो का उदय हुआ, उनमे अयोध्या भी एक है।

बुद्ध का अयोध्या में उपदेश

बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार कार्य हेतु गौतम बुद्ध अयोध्या में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्सरता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था।[2]

संयुक्तनिकाय का उल्लेख

'संयुक्तनिकाय' में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त[3] और दारुक्खंधसुक्त[4] का व्याख्यान दिया था। इस सूक्त में भगवान बुद्ध को गंगा नदी के तट पर विहार करते हुए बताया गया है।[5] इसी निकाय की अट्ठकथा में कहा गया है कि यहाँ के निवासियों ने गंगा के तट पर एक विहार बनवाकर किसी प्रमुख भिक्षु संघ को दान कर दिया था।[6] इस प्रकार पालि त्रिपिटक और अट्ठकथा दोनों साक्ष्यों में बुद्धकालीन अयोध्या की स्थिति गंगा नदी के तट पर वर्णित है। सम्भव है कि पालि साहित्यकारों ने दोनों नदियों को पवित्रता के आधार पर एक समझकर प्रयोग किया हो और इसी आधार पर अन्तर स्थापित करने में असफल रहे होंगे।

उल्लेखनीय है कि ह्वेन त्सांग ने भी गंगा नदी पार करके अयोध्या में प्रवेश किया था, जबकि वर्तमान अयोध्या गंगा नदी के तट पर स्थित नहीं है।[7] अत: जब तक हम पालि विवरणों को ग़लत न मानें, बुद्धकालीन अयोध्या का वर्तमान अयोध्या से समीकरण सम्भव नहीं है। बहुत सम्भव है कि पालि त्रिपिटक में वर्णित अयोध्या गंगा नदी के किनारे स्थित इसी नाम का कोई अन्य नगर रहा हो।[8]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  2.  मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  3.  संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  4.  तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  5.  संयुक्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग 1, पृष्ठ 382
  6.  सारत्थप्पकासिनी, भाग 2, पृष्ठ 320; भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 252
  7.  वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 354
  8.  विनयेंद्रनाथ चौधरी, बुद्धिस्ट सेंटर्स इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, 1969) पृष्ठ 81
  9.  दीपवंस, भाग 2, पृष्ठ 15; वमसत्थप्पकासिनी (पालि टेक्ट्स सोसायटी), भाग 1, पृष्ठ 127; विमलचरण लाहा, इंडोलाकिल स्टडीज, भाग 3, पृष्ठ 23
  10.  घट जातक, संख्या 454
  11.  जाति (फाउसबाल संस्करण), खण्ड 4, पृष्ठ 82-83
  12.  विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 24; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृष्ठ 7
  13.  अयोध्या इतिहास के आइने में(हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2013।

पालि ग्रन्थों में अयोध्या

पालि ग्रन्थों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' तथा 'अयुज्झनगर' शब्द आते हैं। 'अयुज्झा' (अयुज्झनगर) में अरिंदक तथा उसके उत्तराधिकारियों ने शासन किया था।[9] इसे 'कोशल' में स्थित एक नगर से समीकृत किया गया है। 'घट जातक'[10] में अयोध्या के कालसेन नामक नरेश का उल्लेख आया है। इसके शासन काल में अंधकवेण्हु के दस पुत्रों ने इस नगर को बहुत क्षति पहुँचाई थी। उन्होंने आक्रमण करके इसके उद्यानों एवं प्राकारों को क्षतिग्रस्त कर दिया था।[11]

परवर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या का वर्णन एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मिलता है। धार्मिक क्षेत्र में इसकी महत्ता का कारण सरयू नदी के तट पर इसकी स्थिति तथा इक्ष्वाकु शासकों विशेषकर राम के जीवन के साथ इसका सम्बन्ध था। इसी कारण अयोध्या को 'इक्ष्वाकुभूमि' तथा 'रामपुरी' भी कहते थे।[12]

हर्षवर्धन का समय

सम्राट हर्षवर्धन के राजत्व काल में सन 629 में चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने अयोध्याकी यात्रा के दौरान यहाँ की वैभव शाली परम्पराओं एवं नागरिकों के स्नेह पूर्ण व्यवहार का वर्णन किया है। इस सम्बन्ध में प्राचीनतम बौद्ध साहित्य में वर्णित तथ्यों की पुष्टि कालांतर में ह्वेन त्सांग के द्वारा होती है। अयोध्या साम्प्रदायिक एवं धार्मिक संकीर्णता या सामाजिक विघटनकारी प्रबत्तियो से अलग, अपूर्व और अद्वितीय ज्ञान केंद रही है। प्रमाणों की परिधि इस बात को स्पष्ट करती है कि अयोध्या मूलतः मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम की जन्म भूमि रही है, जिसे बौद्धों ने वेद विरुद्ध धार्मिक पुनर्जागरण काल में अपना केंद्र बनाया। राजसत्ता के परिवर्तनों के साथ साकेत में भी परिवर्तनों का दौर चला। अयोध्या मुस्लिम शासन काल में भी सन 1206 से 1800 तक आद्यात्मिक विरासत की धरोहर बनी रही। भक्ति आंदोलनों के दौरान भी यह अनेक संतो की आराधना स्थली बनी। वैष्णव भक्ति शाखा के अग्रदूत रामानंदाचार्य की रामोपासना के आदर्शों में लीन साधक, भक्तों की भक्त भूमि अयोध्या ही रही। गोस्वामी तुलसीदास के भक्ति साहित्य की रचना स्थली अयोध्या ही थी। नाभादास ने अयोध्या नगरी से बाहर रहकर भी 'भक्तमाल' की रचना कर भक्ति परम्परा को अमर कर दिया।[13]

पन्ने की प्रगति अवस्था

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  मज्झिम निकाय, भाग 2, पृष्ठ 124
  2.  मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165
  3.  संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे
  4.  तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179
  5.  संयुक्तनिकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग 1, पृष्ठ 382
  6.  सारत्थप्पकासिनी, भाग 2, पृष्ठ 320; भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 252
  7.  वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 354
  8.  विनयेंद्रनाथ चौधरी, बुद्धिस्ट सेंटर्स इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, 1969) पृष्ठ 81
  9.  दीपवंस, भाग 2, पृष्ठ 15; वमसत्थप्पकासिनी (पालि टेक्ट्स सोसायटी), भाग 1, पृष्ठ 127; विमलचरण लाहा, इंडोलाकिल स्टडीज, भाग 3, पृष्ठ 23
  10.  घट जातक, संख्या 454
  11.  जाति (फाउसबाल संस्करण), खण्ड 4, पृष्ठ 82-83
  12.  विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 24; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृष्ठ 7
  13.  अयोध्या इतिहास के आइने में(हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2013।
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महाकाव्य में अयोध्या - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

अयोध्या विषय सूची

अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।[1]अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।[2]

नगर का विस्तार

अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,[3] जिसकी पुष्टि 'वाल्मीकि रामायण' में भी होती है।[4]एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र राय चौधरी[5] ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है।[6] जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है। साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम[7] का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।

धार्मिक महत्ता

धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओंऔर जैनियों का एक पवित्र तीर्थ स्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। ये सात पुरियाँ निम्नलिखित थीं-

अयोध्या माया मथुरा काशी काँची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तेते मोक्षदायिका।।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5
  2.  'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12
  3.  विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322; देखें विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34
  4.  आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7
  5.  यह चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारियों का दरबारी कवि था।
  6.  द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912
  7.  ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342
  8.  उपावृथ्थोत्थितां दीनां वाडवामिव वाहिताम्। पांसु गुंठित सर्वांगगीविमवर्श च पाणिना। रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 20, पंक्ति 34
  9.  हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, अयोध्या मिथ आर रियलिटी (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 1973 ई.), पृष्ठ 46
  10.  कपाट तोरणवर्ती सुविभक्तांतरायणाम्। सर्वयंत्रायुधवती मुषितां सर्वशिल्पिभि:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 12
  11.  दुर्गमभीपरिखाँ दुर्गमन्यैर्दुरा सदाम्। वाजिवाराण सम्पूर्ण गोभिरुष्टै: खरैस्तथा।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 13
  12.  राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता। मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:।। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 8
  13.  नानादेशनिवासैश्च वाणीभिरुपशोभिताम्।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 14
  14.  सर्वयंत्रयुधवतीमुषितां सर्वाशिल्पभि:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 30
  15.  पौरजानपदश्रेष्ठा नैगमाश्च गणै: सह।। तत्रैव, अयोध्याकाण्ड, अध्याय 14, 80
  16.  ये च वाणेन विध्यंति विविक्तपरापरम्। शब्दवेध्यां च विततं लघुहस्ता विशाखा:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 20
  17.  हिंसव्याघ्रवराहणं मतानां नदतां बने। हत्तारो निशितै: शस्तैर्वलाद्वाहुबलैरपि।। तत्रैव, बालकाण्ड, संर्ग 5, पंक्ति 22
  18.  विष्णुपुराण (विल्सन संस्करण), भाग 3, पृष्ठ 259
  19.  एफ, ई. पार्जिटर इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 90
  20.  महाभारत, 4/55/2170
  21.  तत्रैव, 13/227-34
  22.  तत्रैव, 241-42
  23.  वायु पुराण, 85, 3-4
  24.  पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशनल, पृष्ठ 91
  25.  विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2 (इलाहाबाद, 1954), पृष्ठ 19
  26.  विष्णुपुराण भाग 4, पृष्ठ 3, 18; पद्मपुराण भाग 6, पृष्ठ 219, 44
  27.  महाभारत, 3, पृष्ठ 126
  28.  ब्रह्मपुराण, 78, 55-57; पद्मपुराण, 5/22/7-18
  29.  एफ, ई. पार्जिटर, ऐश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1962), पृष्ठ 314
  30.  क्षत्र ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्या: क्षत्रमनुव्रता। शुद्रा: स्वकर्मनिरतास्त्रीचर्णानुपचारिण:।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 22
  31.  स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेद्रिया:। दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे।। तत्रै, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 13
  32.  ता पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान। शशास शमितामित्रों नक्षत्राणीव चंद्रमा।। तत्रैव, बालकाण्ड, सर्ग 6, पंक्ति 27

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मध्यकाल में अयोध्या - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

अयोध्या विषय सूची

मध्य काल में मुस्लिमों के उत्कर्ष के समय अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही। यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबरके एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मसजिद बनवाई, जो आज भी विद्यमान है। मसजिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर 'कनक भवन' आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू नदी को छोड़कर भगवान राम के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।

विस्तार

सुखोदय राज्य की अवनति के पश्चात् 1350 ई. में स्याम में अयोध्या राज्य की स्थापना की गई थी। इसका श्रेय उटोंग के शासक को दिया जाता है, जिसने रामाधिपति की उपाधि ग्रहण की थी। अपने राज्य की राजधानी उसने 'अयुठिया' या 'अयोध्या' में बनाई। इस राज्य का प्रभुत्व धीरे-धीरे लाओस और कंबोडिया तक स्थापित हो गया था। किंतु बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के राजाओं ने अयोध्या के विस्तार को रोक दिया। 1767 ई. में बर्मा के स्याम पर आक्रमण के समय अयोध्या नगरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया और तत्पश्चात् स्याम की राजधानी बैंकॉक में बनी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  हैंसबेकर, अयोध्या, गोरनिंगनन, 1986, पृष्ठ 149 में श्रीमहाराजचरित रघुनाथ प्रसाद से उद्धृत।
  2.  शर्मा, प्रो. रामशरण शर्मा। मुस्लिम हमलावरों की लूटपाट और ऐतिहासिक तथ्य (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2013।

सांप्रदायिक असहिष्णुता

हिंदू धार्मिक नेताओं के बीच सांप्रदायिक असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण अयोध्या के मध्यकालीन इतिहास से लिया जा सकता है, जब तक औरंगज़ेब का शासन था। उसके लौह हस्त के बीच अयोध्या में सब कुछ शांत रहा, पर 1707 में उसकी मृत्यु के बाद वहाँ शैव सन्न्यासियों और वैष्णववैरागियों के संगठित दलों के बीच खुला और हिंसक टकराव हुआ। इन दोनों के बीच विवाद का मुद्दा यह था कि धार्मिक स्थलों पर किसका कब्जा रहे और तीर्थ यात्रियों की भेंट और उपहारों से प्राप्त होने वाली आय किसके हाथ लगे। 1804-1805 की एक पुस्तक से इन दोनों संप्रदायों के बीच होने वाले हिंसक टकरावों के बारे में उद्धरण दिये जा सकते हैं-

"उस समय जब राम जन्म दिवस का अवसर आया, लोग बड़ी संख्या में कौसलपुर में एकत्र हुए। कौन उस जबर्दस्त भीड़ का वर्णन कर सकता है। उस स्थान पर हथियार लिये जटाजूटधारी और अंग-प्रत्यंग में भस्म रमाये असीमित संन्यासी वेश में बलिष्ठ योद्धा उपस्थित थे। वह युद्ध के लिए मचलती सैनिकों की असीम सेना थी। वैरागियों के साथ लड़ाई छिड़ गयी। इस लड़ाई में वैरागियों को कुछ भी हाथ न लगा, क्योंकि उनके पास रणनीति का अभाव था। उन्होंने वहां उनकी ओर बढ़ने की गलती की। वैरागी वेशभूषा दुर्गति का कारण बन गयी। वैरागी वेशभूषा वाले सारे लोग भाग खड़े हुए। उनसे बहुत दूर (सन्न्यासियो से) उन्होंने अवधपुर का परित्याग कर दिया। जहां भी उन्हें (सन्न्यासियों को) वैरागी वेष में लोग नजर आते, वे उन्हे भयावह रूप से आतंकित करते। उनके डर से हर कोई भयभीत था और जहां भी संभव हो सका, लोगों ने गुप्त स्थानों में शरण ली और अपने को छिपा लिया। उन्होंने अपना बाना बदल डाला और अपने संप्रदाय संबंधी चिह्र छिपा दिये। कोई भी अपनी सही-सही पहचान नहीं प्रकट कर रहा था।[1][2]

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भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

अयोध्या विषय सूची

सरयू नदी उत्तर प्रदेश में अयोध्या के निकट बहने वाली भारत की प्राचीन नदियों में से एक है। 'घाघरा', 'सरजू' तथा 'शारदा' इस नदी के अन्य नाम हैं। यह हिमालय से निकलकर उत्तरी भारत के गंगा के मैदान में बहने वाली नदी है, जो बलिया और छपराके बीच में गंगा में मिल जाती है। अपने ऊपरी भाग में, जहाँ इसे 'काली नदी' के नाम से जाना जाता है, यह काफ़ी दूरी तक भारत (उत्तराखण्ड राज्य) और नेपाल के बीच सीमा बनाती है।

पौराणिक उल्लेख

रामायण काल में सरयू कोसल जनपद की प्रमुख नदी थी-

‘कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदों महान्, निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान्। अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता मनुना मानवैनद्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम्।’[1]
  • अयोध्या से कुछ दूर सरयू के तट पर घना जंगल स्थित था, जहां अयोध्या नरेश आखेट के लिए जाया करते थे। दशरथ ने इसी वन में आखेट के समय भूल से श्रवण कुमार का, जो सरयू से अपने अंधे माता-पिता के लिए जल लेने के लिए आया था, बध कर दिया था-
‘तस्मिन्नति सुखकाले धनुष्मानिषुमान्रथी व्यायामकृतसंकल्पः सरयूमन्वगां नदीम्, निपाने महिषं रात्रौगजं बाभ्यागतंमृगम्, अन्यद् वा श्वापदं किंचिज्जिधांसुरजितेन्द्रिया’; ‘अपश्यभिषुणा तीरे सरयूबास्ता पसं हतम्, अवकीणंजटाभारं प्रविद्धिकलशोदकम्।'[2]
  • सरयू नदी का ऋग्वेद में उल्लेख है और यह कहा गया है कि 'यदु' और 'तुर्वससु' ने इसे पार किया था।[3]
  • पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी'[4] में सरयू का नामोल्लेख किया है।
  • 'पद्मपुराण' के उत्तरखंड[5] में भी सरयू नदी का माहात्म्य वर्णित है।
  • सरयू नदी अयोध्यावासियों की बड़ी प्रिय नदी थी। कालिदास के 'रघुवंश' में राम सरयू को जननी के समान ही पूज्य कहते हैं-
‘सेयं मदीया जननीव तेन मान्येन राज्ञा सरयूवियुक्ता, दूरे बसन्तं शिशिरानिलैर्मां तरंगहस्तैरूपगूहतीव।’[6]
  • सरयू के तट पर अनेक यज्ञों के रूपों का वर्णन कालिदास ने अपने महाकाव्य'रघुवंश'[7] में किया है-
‘जलानि या तीरनिखातयूपा बहत्ययोष्यामनुराजधानीम्’।
'एषा भागीरथी गंगा दृश्यते लोकपावनी, एषा सा दृश्यते सीते सरयूर्यूपमालिनी।[9]
  • सरयू मानसरोवर से निकलती है, जिसका नाम 'ब्रह्मसर' भी है। कालिदास के निम्न वर्णन[10] से यह कथन सूचित होता है-
'पयोधरैः पुण्यजनांगनानां निर्विष्टहेमाम्बुजरेणु यस्याः ब्राह्मंसरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्तमुदाहरन्ति।'

उपरोक्त उद्धरण से यह भी जान पड़ता है कि कालिदास के समय में परम्परागत रूप में इस तथ्य की जानकारी यद्यपि थी, तो भी सरयू के उद्गम को शायद ही किसी ने देखा था। इस भौगोलिक तथ्य का ज्ञान तुलसीदस को भी था, क्योंकि उन्होंने सरयू को 'मानसनन्दनी' कहा है।[11]

  • सरयू मानसरोवर से पहले 'कौड़याली' नाम धारण करके बहती है; फिर इसका नाम सरयू और अंत में 'घाघरा' या 'घर्घरा' हो जाता है।
  • सरयू छपरा (बिहार) के निकट गंगा में मिलती है। गंगा-सरयू संगम पर 'चेरान' नामक प्राचीन स्थान है।[12]
  • कालिदास ने सरयू-जाह्नवी संगम को तीर्थ बताया है। यहां दशरथ के पिताअज ने वृद्धावस्था में प्राण त्याग दिए थे-
'तीर्थे तोयव्यतिकरभवे जह्नुकन्यारव्वो देंहत्यागादमराणनालेखयमासाद्य सद्यः।'[13]

सम्भवत: उपरोक्त तीर्थ 'चेरान' के निकट रहा होगा।

'रहस्यां शतकुभां च सरयूं च तथैव च, चर्मण्वतीं वेत्रवतीं हस्तिसोमां दिश्र तथा।'
'यमुना सरस्वती दृषद्वती गोमती सरयू।'

'रामचरितमानस' का उल्लेख

'अवधपुरी मम पुरी सुहावनि, 
दक्षिण दिश बह सरयू पावनी' [16]

रामचरित मानस की इस चौपाई में सरयू नदी को अयोध्या की पहचान का प्रमुख चिह्न बताया गया है। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है।

और पढ़ें

टीका टिप्पणी

  1.  वाल्मीकि रामायण 5, 19
  2.  वाल्मीकि रामयण, अयोध्याकाण्ड63, 20-21-36
  3.  ऋग्वेद 4, 30, 18; 10, 64, 9; 5, 53, 9
  4.  अष्टाध्यायी 6, 4, 174
  5.  35-38
  6.  रघुवंश 13, 63
  7.  रघुवंश 13, 63
  8.  अनुशासनपर्व 155
  9.  अध्यात्म रामायण, युद्धकांड 14, 13
  10.  'रघुवंश' 13, 60
  11.  रामचरितमानस, बालकांड
  12.  इसके कुछ आगे पटना के ऊपर शोण, गंगा से मिलती है
  13.  रघुवंश 8, 95
  14.  भीष्मपर्व 9, 19
  15.  श्रीमद्भागवत 5, 19, 18
  16.  रामचरित मानस
  17.  अब सरयू नदी भी खतरे में (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 मई, 2011।

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